चलता हूँ तम् पथ पर,
इस आस में कि सुबह हो
चलता हूँ अनंत पथ पर,
इस आस में कि अंत हो
चलता हूँ क्षितिज की ओर,
इस आस में कि पंख हो
चलता हूँ शूल पर,
इस आस में कि फूल हो
चलता हूँ रेत पर,
इस आस में कि नीर हो
चलता हूँ अकेला,
इस आस में कि साथ हो
नियति पर यकीन नहीं,
नीयत है ख़ुद पर यकीन हो
हारता भी हूँ,
इस आस में कि जीत पर यकीन हो
चलता हूँ....चलता रहूँगा
कि इस आस पर विश्वास हो....!!
Saturday, May 16, 2009
Friday, May 8, 2009
एक टीस...!!!
ये रचना मैंने कुछ साल पहले लिखी थी. आज पुराने कागज़ातों को खंगालते हुए जब इस पर नज़र पड़ी तो मैंने सोचा क्यों न इसे आप लोगों के बीच लाया जाये....ये एक उस लड़की के मन के भाव हैं जो अभी पैदा भी नहीं हुई और वो ये जानती है कि वो कभी आँख भी नहीं खोल पायेगी...ये हमारे समाज की विडंबना ही है कि जहाँ नारी को देवी का स्वरुप माना गया है वही आज कन्या भ्रूण हत्या जैसे कृत्य भी हो रहे हैं...जहाँ बच्चियों को या तो जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है या बाद में... २१ वी सदी में क़दम रखने वाले हमारे समाज में आज भी ये बुराई अपने पैर जमाये खड़ी है...और यहाँ हम यह कह कर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं कि इस तरह की घटनाएं सिर्फ़ अनपढ़ और निचले स्तर के लोगों में ही होती है...क्योंकि पंजाब, हरयाणा, राजस्थान में ऐसे कई केसेस नज़र में आये हैं जहाँ पढ़े-लिखे लोग भी अपनी आने वाली संतान लड़की है जानकर, उसके जन्म लेने से पहले ही उसका गला घोंट देते हैं....नीचे लिखी ये चन्द लाइंस पढ़कर अगर आपके मन में उस बच्ची के प्रति थोड़ी सी भी सहानुभूति जागे तो मैं समझूंगा मेरा काम सफल हुआ... ये कुछ सवाल हैं जो एक अजन्मी बेटी अपनी माँ से पूछ रही है. यह एक फरियाद है, दर्द है, एक टीस है....और ये टीस मैं अकेले सहन नहीं कर सकता..:(
हे माँ
मैंने देखी है दुनिया तेरी निगाहों से
पर क्यों..
चलने से पहले उखड गए क़दम राहों से
जिन आँखों में संवरना काजल था
जिन हाथों को थामना तेरा आँचल था
ख़त्म हो गए...
कुचल गए वो मचलते अरमान
ओझल हो गया वो उम्मीदों का आसमान
समझ ना पाया मेरा ये कोमल ह्रदय
क्यों ना हो पाया मेरी सुबह का उदय
रोशनी को तरसती खुल ना पाई मेरी पलक
कैसी हो तुम..?
देख ना पाई तुम्हारी एक झलक
क्यूँ...?
क्यूँ कर दिया मुझको खुद से अलग
क्यूँ कर दिया तेरी कोख ने ये फ़रक
रोया तो था तेरे दिल का कोई कोना
फिर क्यूँ किया ममता का आँगन सूना
हाँ,
मैंने देखी है दुनिया बस तेरी ही निगाहों से
चलने से पहले उखड गए क़दम राहों से...
हे माँ
मैंने देखी है दुनिया तेरी निगाहों से
पर क्यों..
चलने से पहले उखड गए क़दम राहों से
जिन आँखों में संवरना काजल था
जिन हाथों को थामना तेरा आँचल था
ख़त्म हो गए...
कुचल गए वो मचलते अरमान
ओझल हो गया वो उम्मीदों का आसमान
समझ ना पाया मेरा ये कोमल ह्रदय
क्यों ना हो पाया मेरी सुबह का उदय
रोशनी को तरसती खुल ना पाई मेरी पलक
कैसी हो तुम..?
देख ना पाई तुम्हारी एक झलक
क्यूँ...?
क्यूँ कर दिया मुझको खुद से अलग
क्यूँ कर दिया तेरी कोख ने ये फ़रक
रोया तो था तेरे दिल का कोई कोना
फिर क्यूँ किया ममता का आँगन सूना
हाँ,
मैंने देखी है दुनिया बस तेरी ही निगाहों से
चलने से पहले उखड गए क़दम राहों से...
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